दलबदल विरोधी कानून क्या है?(what is anti defection Law?)

हाल ही में, राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी द्वारा सचिन पायलट सहित अन्य 19 कांग्रेस विधायकों को नोटिस भेजा गया है, नोटिस में इन विधायकों से यह पूछा गया है, कि आपको ‘अयोग्य’ (Disqualified) घोषित क्यों नहीं किया जाए? विधायकों को उत्तर देने के लिए 17 जुलाई तक का समय दिया गया है

कांग्रेस पार्टी ने, विधानसभा अध्यक्ष को दी गयी याचिका में इन बागी विधायकों पर पार्टी बदलने का आरोप लगाया है।

विधानसभा अध्यक्ष द्वारा 19 कांग्रेस विधायकों को दिए गए नोटिस का आधार

19 कांग्रेस विधायकों के लिए यह नोटिस, संविधान की ‘दसवीं अनुसूची’ के अंतर्गत दिया गया है, जिसे दलबदल विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है।

दलबदल विरोधी कानून क्या है? 

संविधान में दसवीं अनुसूची, 1985 में 52 वें संशोधन अधिनियम द्वारा डाली गई थी। 
  1. यह उस प्रक्रिया को  बताता है जिसके द्वारा विधायकों को सदन के किसी अन्य सदस्य द्वारा याचिका करने के आधार पर विधायिका के पीठासीन अधिकारी द्वारा दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जा सकता है  
  2. दलबदल के आधार पर अयोग्यता के प्रश्न पर निर्णय सदन के अध्यक्ष को संदर्भित किया जाता है, और उनका निर्णय अंतिम होता है। 
  3. कानून संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है। 
दलबदल के मामले से जुड़ा कानून संविधान की दसवीं अनुसूची से जुड़ा है जिसमें अध्यक्ष की अहम भूमिका होती है। आम बोलचाल में इसे दलबदल विरोधी कानून भी कहते हैं। यह विधेयक जनवरी 1985 में संसद से पारित हुआ। इसमें अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 में संशोधन किया गया और संविधान की दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसमें दलबदल करने वाले सांसदों और विधायकों की अर्हता निरस्त करने के संबंध में उपबंध किए गए हैं। 

अयोग्यता: 

दसवीं अनुसूची में दल-परिवर्तन के आधार पर सांसदों तथा विधायकों की निरर्हता साबित हो सकती है, 

यदि किसी राजनीतिक दल से संबंधित किसी सदन का सदस्य स्वेच्छा से अपनी सदस्यता छोड़ देता है। 

 यदि वह उस सदन में अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के विपरीत मत देता है या मतदान में अनुपस्थित रहता है तथा राजनीतिक दल से उसने पंद्रह दिनों के भीतर क्षमादान न पाया हो। 

अगर चुनाव के बाद कोई निर्दलीय उम्मीदवार किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है। 
यदि मनोनीत सदस्य बनने के छह महीने बाद कोई नामित सदस्य किसी पार्टी में शामिल होता है।

अधिनियम की विशेषताएँ

दल-बदल विरोधी कानून की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है-

  • यदि एक व्यक्ति को दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। यह प्रावधान अनुच्छेद 102(2) के तहत किया गया है।
  • यदि एक व्यक्ति को दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो विधान सभा या किसी राज्य की विधान परिषद की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। यह प्रावधान अनुच्छेद 191(2) के तहत किया गया है।

कानून के तहत अपवाद: 

विधायक कुछ परिस्थितियों में अयोग्यता के जोखिम के बिना अपनी पार्टी को बदल सकते हैं। 

कानून एक पार्टी के साथ या किसी अन्य पार्टी में विलय करने की अनुमति देता है, बशर्ते कि कम से कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों।

 ऐसे परिदृश्य में, न तो वे सदस्य जो विलय का निर्णय लेते हैं, और न ही मूल पार्टी के साथ रहने वालों को अयोग्यता का सामना करना पड़ेगा। 

पीठासीन अधिकारी का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है: 

दल-बदल कानून लागू करने के सभी अधिकार सदन के अध्यक्ष या सभापति को दिए गए हैं। मूल प्रावधानों के तहत अध्यक्ष के किसी निर्णय को न्यायालय की समीक्षा से बाहर रखा गया और किसी न्यायालय को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं दिया गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने नागालैंड के किरोतो होलोहन (1992) मामले में इस प्रावधान को ख़ारिज कर दिया। न्यायिक सिद्धांतों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि ‘न्यायिक समीक्षा’ भारतीय संविधान के मूल ढाँचे में आती है, जिसे रोका नहीं जा सकता। ऐसा ही कुछ वर्तमान में कर्नाटक में देखने को मिला। हालाँकि, यह माना गया कि जब तक पीठासीन अधिकारी अपना आदेश नहीं देता तब तक कोई न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हो सकता है।

दलबदल विरोधी कानून के लाभ: 

पार्टी की निष्ठा की शिफ्टिंग को रोककर सरकार को स्थिरता प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करता है कि उम्मीदवार पार्टी के साथ-साथ नागरिकों के प्रति भी वफादार रहें। पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार को कम करने के लिए विरोधी दलबदल की उम्मीद के प्रावधानों को आकर्षित किए बिना राजनीतिक दलों के विलय की सुविधा। एक सदस्य के खिलाफ दंडात्मक उपायों के लिए प्रदान करता है जो एक पार्टी से दूसरे में दोष करता है।


क्या विधायक उत्तर देने हेतु निर्धारित की गयी समयसीमा से पूर्व न्यायालय में अपील कर सकते है?

  • न्यायालय, दसवीं अनुसूची के अंतर्गत अध्यक्ष की शक्तियों में हस्तक्षेप करने के प्रतिकूल है।
  • सदस्यों की अयोग्यता-संबंधी निर्णय लेते समय, अध्यक्ष संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • वर्ष 2019 में कर्नाटक विधानसभा मामले में भी, न्यायालय ने विधायकों द्वारा अपील करने पर भी विधानसभा अध्यक्ष को अयोग्यता-संबंधी निर्णय लेने का समय दिया था।

उच्चत्तम न्यायालय द्वारा ‘किहोटो होलोन बनाम जचिल्लहू बनाम अन्य’ (Kihoto Hollohan vs Zachillhu And Others) मामले में निर्णय:

  • न्यायालय ने विधायकों की निर्हरता-संबंधी मामलों पर निर्णय लेने हेतु विधानसभा अध्यक्ष को प्राप्त विवेकाधिकार को बरकरार रखा था।
  • हालांकि, बाद में अध्यक्ष के निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है, परन्तु न्यायालय, प्रकिया पर रोक अथवा स्टे नहीं लगा सकता है।
  • अतः, अध्यक्ष/सभापति द्वारा निर्णय लेने से पूर्व न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है, विधायकों के ‘भय की वजह से कार्यवाही’ (Quia timet action) की अनुमति नहीं दी जा सकती है। तथा न ही प्रक्रिया के वादकालीन चरण (Interlocutory Stage) में हस्तक्षेप की अनुमति दी जायेगी।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय केवल संवैधानिक अधिदेश के उल्लंघन, दुर्भावनापूर्ण न्याय, प्राकृतिक न्याय-नियमों का पालन नहीं होने तथा भ्रष्टता के आधार पर निर्णय की समीक्षा कर सकता है।

 प्रश्नगत मौलिक अधिकार

राजस्थान के पूर्व-उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट तथा अन्य 18 विधायकों ने दसवीं अनुसूची के अनुच्छेद 2 (1) (क) की संवैधानिकता को चुनौती देने हेतु राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। दसवीं अनुसूची के अनुच्छेद 2 (1) (क) में, ‘स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ना’ को सदस्य की अयोग्यता का एक आधार बताया गया है।

विधायकों का कहना है कि, यह प्रावधान उनके ‘असंतोष व्यक्त करने के अधिकार’ का उल्लंघन करता है तथा विधायक के रूप में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मूल अधिकार का उल्लंघन है।

दल-बदल विरोधी कानून पर समिति

आयोग्यता संबंधी निर्णय पर वर्ष 2002 में दिनेश गोस्वामी समिति और न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाली संविधान समीक्षा समिति ने राष्ट्रपति, राज्यपाल तथा चुनाव आयोग से एक ठोस निर्णय की सिफारिश की थी।

दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा कि अयोग्यता उन मामलों तक सीमित होनी चाहिए जहाँ (ए) एक सदस्य स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, (बी) एक सदस्य वोट देने से परहेज करता है, या वोट के अविश्वास प्रस्ताव में पार्टी व्हीप के विपरीत वोट करता है।

विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के अनुसार चुनाव पूर्व चुनावी मोर्चो (गोलबंदी) को दलबदल विरोधी कानून के तहत राजनीतिक दलों के रूप में माना जाना चाहिए। इसके अलावा राजनीतिक दलों को व्हिप जारी करने को केवल उन मामलों में सीमित करना चाहिए जब सरकार खतरे में हो।

अधिनियम का मूल्यांकन

दल-बदल विरोधी कानून को भारत की नैतिक राजनीति में एक ऐतिहासिक घटना के रूप में माना गया है। इसने विधायकों या सांसदों को राजनैतिक माइंड सेट के साथ नैतिक और समकालिक राजनीति करने को मजबूर कर दिया है। दल-बदल विरोधी कानून ने राजनेताओं को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दल-बदल करने के लिए हतोत्साहित किया। हालाँकि, इस अधिनियम में कई कमियाँ भी हैं और यहाँ तक कि यह कई बार दल-बदल को रोकने में विफल भी रहा है। इसलिए इसके संबंध में पक्ष-विपक्ष का वर्णन करना अवश्यक है।

पक्ष में तर्क

  • पार्टी के प्रति निष्ठा के बदलाव को रोकने से सरकार को स्थिरता प्रदान करता है।
  • पार्टी के समर्थन के साथ और पार्टी के घोषणापत्रें के आधार पर निर्वाचित उम्मीदवारों को पार्टी की नीतियों के प्रति वफादार बनाए रखता है।
  • इसके अलावा पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है।
  • विरोधी दलबदल के प्रावधानों को आकर्षित किए बिना राजनीतिक दलों के विलय की सुविधा प्रदान करता है।
  • इससे राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिलती है।
  • शासन पर अधिक एकाग्रता संभव है।
  • यह किसी पार्टी को दोषी सदस्यों के लिए दण्डात्मक कार्यवाही का अधिकार प्रदान करता है।

विपक्ष में तर्क

  • दल-बदल विरोधी कानून को गैर लोकतांत्रिक माना जाता है क्योंकि यह जन-प्रतिनिधियों के स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करता है।
  • यह जनप्रतिनिधियों के दलगत से ऊपर उठकर अपने स्वतंत्र विचार को रखने व कार्य करने से रोकता है।
  • जनप्रतिनिधि विरोधी कानून पार्टी के विचारों व कार्यों को ही लागू करने के लिए सदस्यों को बाध्य करता है चाहे उसपर उनका विचार मिले क्यो न हो।
  • कई बार जनप्रतिनिधि इस कानून की वजह से अपने क्षेत्र के लोगों और परिस्थितियों के अनुसार अपना मत व्यक्त नहीं कर पाते क्योंकि उनके दल का मत उससे भिन्न हो सकता है।

आगे की राह

  • अयोग्यता पर अंतिम निर्णय राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा लिया जाना चाहिए क्योंकि विरोधी दोष कानून के अनुसार स्पीकर को बहुत अधिक महत्व दिया गया है।
  • अधिक कठोर और प्रभावी कानून समय की आवश्यकता है।
  • इस तरह के मामलों से निपटने के लिए ट्रिब्यूनल बनाने की जरूरत है।
  • सत्ता का उचित विभाजन विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच होना चाहिए। इस्तीफे के बाद भी अयोग्यता प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए।
  • दलबदल-विरोधी कानून यह सुनिश्चित करता है कि विधायकों के पक्ष में बदलाव न करके एक स्थिर सरकार प्रदान की जाए।
  • जब कोई व्यक्ति दल-बदल करे तो उसे निश्चित अवधि तक मंत्रीपद न मिलने संबंधी कानून बनाना चाहिए।
  • दलबदल के संबंध में स्पीकर के निर्णय लेने की शक्ति की समीक्षा होनी चाहिए।

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